
मौर्योत्तर काल Post Maurya
Chapter-08 मौर्योत्तर काल Post Maurya [Part-01]
Click here – To Download the Complete Notes. It contains Chapter-08 Post Maurya Empire which divided into three different post/blogs in website as
(1) Post Maurya Empire
(2) Foreign Invasion in India
(3) Questions about Post Maurya Empire
It includes 42 page pdf having multiple images and maps and Covers all Questions About the post Maurya with explanation that asked in the all civil services examinations
ब्राह्मण राज्य –
- मौर्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों को 2 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
1. देशी उत्तराधिकारी,
2. विदेशी उत्तराधिकारी।
- मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरांत ब्राह्मण साम्राज्य का उदय हुआ।
- इस साम्राज्य के अंतर्गत प्रमुख शासक (शुंग वंश कण्व वंश आन्ध्र सातवाहन वंश वाकाटक वंश) थे।

I.देशी उत्तराधिकारी [मौर्योत्तर काल Post Maurya ]
शुंग वंश
शुंगों की उत्पत्ति
- शुंग किस वंश से संबद्ध थे, यह निश्चित करना कठिन है।
- दिव्यावदान नामक बौद्ध महायान-ग्रंथ में बताया गया है कि पुष्यमित्र ने यद्यपि मौर्य साम्राज्य को नष्ट किया, तथापित वह स्वयं भी मौर्यवंशी था।
- शंगवंशीय शासकों के नामों में मित्र व ईरान में प्रचलित मित्र (सूर्य) की पूजा में संबंध था।
- इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल के विचारानुसार पुष्यमित्र मौर्यवंश के राजपुरोहित का पुत्र था।
- अशोक की धार्मिक नीति से क्षुब्ध होकर राजपुरोहित व उनके वंशज धार्मिक क्रियाकलापों से अलग हो गए एवं सेना |में नौकरी कर ली।
- इसी क्रम में पुष्यमित्र भी सेनापति बन गया। अतः, शुंग ब्राह्मण थे।
- पाणिनि उन्हें भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण बताता है।
- कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम् में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र को बैंबिक वंशीय व काश्यप गोत्र से संबद्ध मना है।
- शुंग ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने बौद्धधर्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किये।

पुष्यमित्र शुंग (185-149 ई.)
- अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या करके उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई. पू. में शुंग वंश की स्थापना की थी।
- शुंग शासको ने विदिशा को राजधानी बनायी थी।
- शुंग काल में ही भागवत धर्म का उदय एवं विकास हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना शुरू हुई।
- पुष्यमित्र शुंग के विषय में जानकारी इसके अयोध्या अभिलेख से प्राप्त होती है, जो इसके राज्यपाल धनदेव से संबंधित है।
- इस अभिलेख से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग ने 2 अश्वमेघ यज्ञ करवाए।
- इसे कराने का श्रेय पतंजलि को है।
- उसने सांची में 2 स्तूपों का निर्माण करवाया तथा अशोक कालीन सांची के महास्तूप की काष्ठ-वेदिका के स्थान पर पाषाण-वेदिका निर्मित करवाई।
- इसके अतिरिक्त उसे भरहुत स्तूप के निर्माण का श्रेय प्राप्त था।
पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी
- 1. अग्निमित्रः पुष्यमित्र शुंग के बाद अग्निमित्र शासक बना।
- 2. वसुमित्रः कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक से पता चलता है कि अग्निमित्र के समय में यवन आक्रमण हुआ। वसुमित्र ने उन्हें सिंधु नदी के तट पर पराजित किया।
- 3. बज्रमित्रः यह वसुमित्र के बाद शासक हुआ।
- 4. भागभद्र (भागवत): इसके विदिशा स्थित दरबार में हिंद यवन शासक एण्टियालकीड्स ने हेलियोडोरस नामक राजदूत भेजा था। उसने भागवत धर्म ग्रहण कर लिया तथा विदिशा (बेसनगर) में गरूड़-ध्वज की स्थापना कर भागवत विष्णु की पूजा की थी।
- 5. देवभूति (देवभूमि): यह शुंग वंश का अंतिम शासक था। इसके मंत्री वसुदेव ने इसकी हत्या कर एक नए वंश (कण्व वंश) की स्थापना की थी।
Facts to know —- [मौर्योत्तर काल Post Maurya ]
भरहुत स्तूप
- यह स्तूप सतना के समीप स्थित है। इसका निर्माण पुष्यमित्र शुंग ने कराया।
- इसकी खोज 1873 ई. में अलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी।
सांची का स्तूप
- सांची का स्तूप मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में विदिशा के समीप स्थित है।
- यहां पर तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है। — एक विशाल तथा दो छोटे स्तूप
- महास्तूप में भगवान बुद्ध के जबकि द्वितीय स्तूप में अशोक कालीन धर्म प्रचारकों के तथा तृतीय स्तूप में बुद्ध के 2 प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र व महामोद्गलायन के धातु अवशेष सुरक्षित है
कण्व वंश [75 BC to 30 BC]
- शुंग वंश के अंतिम शासक देवभूति की हत्या करके उसके सचिव वासुदेव ने 75 ई. पू. में कण्व राजवंश की नींव रखी थी।
- कण्व वंश के अंतिम शासक सुशर्मन को हटाकर सिमुक ने सातवाहन वंश की स्थापना की थी।
मौर्योत्तर काल Post Maurya - 4 उत्तराधिकरी: 1. वासुदेव कण्व, 2. भूमिमित्र कण्व, 3. नारायण कण्व, 4. सुशर्मन कण्व।
- अंतिमशासक सुशर्मन की हत्या 30 ई.पू. में सिमुक ने कर आंध्र सातवाहन वंश की स्थापना की गयी।
आंध्र सातवाहन/चेदि वंश
- ईसा पूर्व प्रथम शती में विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में 2 शक्तियां प्रबल हुई।
- 1. ऊपरी दक्कन के सातवाहन
- 2. कलिंग के चेदि।
- इनमें चेदियों की शक्ति अल्पकालीन थी किंतु सातवाहन शक्ति का तीन सदियों तक निरंतर उत्कर्ष होता रहा तथा उनकी सत्ता किसी न किसी रूप में 4 शताब्दियों तक बनी रही।
- सातवाहन साम्राज्य के अंतर्गत समस्त दक्षिणापथ सम्मिलित था और उत्तर भारत में सम्भवत: मगध तक उसका विस्तार था।
- सातवाहनों को दक्षिण भारत का प्रथम साम्राज्य स्थापित करन का श्रेय दिया जाता है।
1. आंध्र सातवाहन वंश [मौर्योत्तर काल Post Maurya ]
शिमुक (60-37 ई.पू.)
- सातवाहनों की शक्ति को स्थापित करने वाला प्रथम राजा शिमुक था।
- पुराणों के अनुसार, उसी ने अंतिम रूप से शुंग-कण्व सत्ता को समाप्त किया, परंतु इस बात के तो प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
- शिमुक ने मगध पर आक्रमण किया, जहां कण्व सुशर्मन राज्य कर रहा था। उसने संभवतः विदिशा का क्षेत्र कण्वों से हस्तगत किया था।
- धर्म में उसकी गहरी अभिरूचि थी। उसने अनेक जैन व बौद्ध मंदिरों, चैत्यों का निर्माण करवाया; परंतु अपने शासन के दौरान वह एक दुष्ट और अत्याचारी राजा बन गया। अतः उसकी हत्या कर दी गई।

कृष्ण (37-27 ई.पू.)
- शिमुक के बाद उसका भाई कृष्ण (कान्ह) राजा बना।
- पुराणों के अनुसार उसने 18 वर्षों तक राज किया, परंतु उसकी ज्ञात तिथि 10 वर्षों के शासन (37-27 ई. पू.) का प्रमाण देती है।
- उसने नासिक तक सातवाहन-शक्ति का विस्तार किया।
- नासिक शिलालेख में इसका नाम मिलता हैं इसी के राज्यकाल में राज्य की किसी उच्च पदाधिकारी ने नासिक की एक गुफा खुदवाई।
शातकर्णी प्रथम (27-17 ई.पू.) I
- सातवाहनों का अगला राजा शातकर्णी प्रथम था। वह शिमुक का पुत्र या भतीजा (कृष्ण का पुत्र) था।
- उसके नाम का उल्लेख अभिलेखों एवं पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी में मिलता है।
- शातकर्णी की उपाधि धारण करने वाला प्रथम शासक था।
- 10 वर्षों की अवधि में ही उसने सातहवानों की प्रतिष्ठा में प्राप्त की थी।
- वह दक्षिणापथ का सबसे शक्तिशाली राजा बन बैठा।
- अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसने अगिय या अमिय-वंश की राजकुमारी नयनिका से विवाह कर लिया। उसकी रानी नयनिका के अभिलेख से शातकर्णी के कार्यों पर पूरा प्रकाश पड़ता है।
- इस अभिलेख के अनुसार शातकर्णी ने पश्चिमी मालवा, अनूपप्रदेश (नर्मदा घाटी) व विदर्भ (बरार) पर अपना आधिपत्य कर लिया।
- शातकर्णी-I ने अमरावती को राजधानी बनाया था। यह आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के तट पर अवस्थित है।
- उसके साम्राज्य में ऊपरी दक्कन, मध्य व पश्चिमी भारत के कुछ भाग, उत्तरी कोंकण व काठियावाड़ शामिल थे। उसने कलिंग के शासक खारवेल से भी युद्ध किया।
हाल (20-24 ई.पू.)
- इस वंश का 17वां राजा था। इस शासक ने प्राकृत भाषा में गाथासप्तशती नामक पुस्तक की रचना की।
- इसमें उसकी प्रेमगाथाओं का वर्णन है। इसके काल में गुणाढ्य ने वृहत्कथा कोश नामक ग्रंथ की रचना की।
- इसी के समय में संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्बवर्मन् ने कातंत्र नामक पुस्तक संस्कृत में लिखी।
गौतमी पुत्र शातकर्णी (106-130 ई.)
- यह सातवाहन वंश का महानतम शासक था।
- गौतमी पुत्र शातकर्णी ने अपनी माता के साथ मिलकर शासन किया था।
- इसका साम्राज्य उत्तर में मालवा व काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला था।
- इसके समय में इसकी माता बलश्री का नासिक अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- नासिक अभिलेख में इसे एकमात्र ब्राह्मण एवं अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है।
- इसने शक शासक नहपान को हराकर मारा डाला।

वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130-154 ई.) –
- गौतमी पुत्र शातकर्णी के पश्चात उसका पुत्र वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130-154 ई.) सातवाहनों का राजा बना।
- पुराणों में उसका नाम पुलोमा शातकर्णी और टॉलमी के विवरण में सिरो-पोलिमेओस के रूप में मिलता है।
- मुद्राओं व अभिलेखों (नासिक, कार्ले, अमरावती) में भी उसका नाम मिलता है।
- संभवतः उसी ने नवनगर की स्थापना की थी।
- कन्हेरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने शकों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शक-महाक्षत्रप रूद्रदामन प्रथम की पुत्री से विवाह किया; परंतु इसके बावजूद दोनों वंशों का संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं रह सका।
- पुलुमावी को रूद्रदामन के द्वारा 2 बार पराजित होना पड़ा, तथापि वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी ने सातवाहनों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बनाए रखां उसने भी महाराज तथा दक्षिणापथेश्वर की उपाधि धारण किया जिसका उल्लेख अमरावती लेख में मिलता है।
- उसने सामुद्रिक व्यापार को भी बढ़ावा दिया तथा अमरावती के स्तूप का विस्तार किया।
- आंध्र प्रदेश पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रथम आंध्र सम्राट कहा गया।
- उनके सिक्कों पर दो पलवारो वाले जहाज का चित्र नौ शक्ति के पर्याप्त विकास का प्रमाण है।
शिवश्री शातकर्णी (154-165 ई.) –
- यह पुलुमावी का भाई तथा रूद्रदामन का दामाद था। यह 10 वर्षों तक राज्य किया।
यज्ञश्री शातकर्णी (165-194 ई.)
- सातवाहन संस्कृति के मुख्य केंद्र प्रतिष्ठान, गोवर्थन (आधुनिक नासिक) एवं वैजयंती (उत्तरी कनारा) थे, किंतु तीसरी शताब्दी में उनकी शक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी और स्थानीय शासक स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे पुलुमावी-III सातवाहन वंश का अंतिम शासक था।
- इसके सिक्कों पर जलयान का चित्र अंकित है, जो जलयात्रा व समुद्री व्यापार के प्रति इसके प्रेम का परिचायक है।
- आभीरों ने उनसे महाराष्ट्र छीन लिया, उत्तरी कनारा जिला और मैसूर के भाग में कुंतल और चुन्टु एवं उसके बाद कदम्ब शक्तिशाली हो गए।
- आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली, दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया और विदर्भ में वाकाटकों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
2. कलिंग के चेदि [Chedi of kaling or Kharavela- 1st or 2nd century BCE]
- मौर्य साम्राज्य के अवशेषों पर जिन राज्यों का उदय हुआ, उनमें कलिंग का चे या चेदिवंश भी है।
- मौर्यकाल में ही अशोक के पूर्व, कलिंग एक शक्तिशाली राज्य था। अतः, अशोक ने इस राज्य पर अधिकार कर उसे अपने नियंत्रण में ले लिया।
- अशोक के उत्तराधिकारियों के समय जब साम्राज्य की स्थिति बिगड़ती गई और अंततः इसका पतन हुआ, तब अनेक राज्य स्वतंत्र हो गए।
- कलिंग भी ऐसे राज्यों में एक था। जिस समय दक्कन में सातवाहन-शक्ति का उदय हो रहा था। उसी समय कलिंग (उड़ीसा) में चेत या चेदि-राजवंश का उदय हुआ।
कलिंग का खारवेल
- चेदिवंश का सबसे महान शासक खारवेल था।
- भुवनेश्वर (उड़ीसा) के पास उदयगिरी की पहाड़ियों की एक गुफा से प्राप्त हाथीगुम्फा-अभिलेख से इस राजा की जीवनी एवं उसके कार्य-कलाप पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है।
- चेदिवंश के संस्थापक महामेघवाहन के राज्यकाल के दौरान, 16 वर्ष की आयु में खारवेल को युवराज (राजा का उत्तराधिकारी) बनाया गया।
- वह 9 वर्षों तक युवराज बना रहा। महामेघवाहन की मृत्यु के पश्चात अपने 24वें वर्ष में खारवेल कलिंग का शासक बना।
- खारवेल के राज्यारोहण की तिथि विवादास्पद है; परंतु संभवत: 28 ई.पू. में उसका अभिषेक हुआ। उसने कलिंगाधिपति और कलिंगचक्रवर्ती की उपाधियां धारण कीं।
- उसने हत्थिसिंह (हत्यकसिंह) के पौत्र ललाक की पुत्री से अपना विवाह किया।
- अपने शासन के 5वें वर्ष में कलिंगनरेश ने मगधराज नंदराज द्वारा खुदवाई गई नहर का विस्तार तनसुलि से कलिंग तक करवाया।
- नहरों की जानकारी देने वाला प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है।
- खारवेल ने भुवनेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था।
वाकाटक वंश [Vakataka dynasty- c. 250 CE – c. 500 CE]
- सातवाहनों के पतन से लेकर चालुक्यों के उदय के बीच दक्कन में सबसे शक्तिशाली एवं प्रमुख राजवंश वाकाटकों का था।
- वाकाटकों ने तीसरी से छठी शताब्दी तक राज्य किया।
- पुराणों के अनुसार विंध्यशक्ति वाकाटक राज्य का संस्थापक था।
- उसकी आरंभिक राजधानी पुरिका (बरार में) थी।
- वाकाटकों के 2 शाखाओं के शासन का उल्लेख मिलता है।
1. विंध्यशक्ति की मूल शाखा,
2. बेसिम की शाखा।
विंध्यशक्ति (255-275 ई.)
- वाकाटक राज्य का संस्थापक विंध्यशक्ति था। संभवतः वह सातवाहनों का अधीनस्थ कोई पदाधिकारी या महत्वपूर्ण सरदार था।
- उसने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति स्थापित की तथा बाद में विंध्य के पार सातवाहनों के प्रदेशों पर अधिकार किया।
- वह विष्णुवृद्धि गोत्रीय ब्राह्मण था।
- पुराणों के अतिरिक्त अजंता के अभिलेखों में भी उसे वाकाटक शक्ति का संस्थापक माना गया है तथा उसकी तुलना इंद और विष्णु से की गई है।
- इससे प्रतीत होता है कि वह ब्राह्मण धर्म को मानने वाला था। उसने कोई विशिष्ट राजकीय उपाधि धारण नहीं की थी।

प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.)
- वाकाटकों की शक्ति का विस्तार विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन प्रथम ने किया।
- उसने सभी दिशाओं में विजय अभियान किए।
- वाकाटकों में एकमात्र वही ऐसा शासक था जिसने महाराजा की उपाधि धारण की थी।
- प्रवरसेन ने ब्राह्मण धर्म की महत्ता स्थापित की तथा 4 अश्वमेध यज्ञ किए।
- जिस समय वाकाटकों का उदय हो रहा था उसी समय मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में नाग वंश का भी उत्थान हो रहा था।
- इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ गई।
- प्रवरसेन के समय में वाकाटक शक्ति का विस्तार मध्य भारत में बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक था।
- प्रवरसेन ने शको के अनेक क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया।
- प्रवरसेन ने अपना राज्य अपने पुत्रों में प्रशासनिक सुविधा के लिए विभक्त कर दिया था। इसमें दो भाग मुख्य थे।
- एक भाग प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र की अध्यक्षता में जिसका केंद्र नागपुर के निकट नंदिवर्धन था, दूसरा भाग था।
- सर्वसेन के अधीन जिसका केंद्र बरार में वत्सगुल्म था। आगे इसी से बेसिम की शाखा का उदय हुआ।
रूद्रसेन प्रथम (335-360 ई.)
- प्रवरसेन के बाद रूद्रसेन प्रथम (335-360 ई.) वाकाटक राजा बना।
- वह प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमीपुत्र का पुत्र था।
- शासक बनते ही उसे अपने विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों से सामना करना पड़ा।
- प्रवरसेन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में प्रतिस्पर्धा आरंभ हुई। गौतमीपुत्र की मृत्यु पहले ही हो गई थी।
- उसी का पुत्र रूद्रसेन प्रवरसेन का उत्तराधिकारी बना।
- अन्य 3 पुत्र जो वस्तुत: गर्वनर (प्रशासक) के रूप में राज्य के तीन भागों पर राज्य कर रहे और स्वतंत्र शासक बन गए।
- रूद्रसेन ने अपने नाना भवनाग की सहायता से अपने दो चाचाओं के राज्य पर विजय प्राप्त कर उनका राज्य समाप्त कर दिया; परंतु सर्वसेन अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखने में सफल हुआ।
- रूद्रसेन ने वाकाटकों की शक्ति को बनाए रखने का प्रयास किया। उसने संभवतः गुप्तों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर लिया जिससे समुद्रगुप्त ने उसके राज्य को छोड़ दिया।
- समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिण के जिन राज्यों का उल्लेख हुआ है उस सूची में वाकाटकों का नाम नहीं मिलता।
- यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है। रूद्रसेन शैव मतावलंबी था।
पृथ्वी सेन प्रथम (360-385 ई.)
- वाकाटकों की मुख्य शाखा में रूद्रसेन का उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन प्रथम बना।
- उसने बेसिम की शाखा के शासक विंध्यसेन (विंध्यशक्ति) से सौहार्दपूर्ण |संबंध बनाए रखा तथा उसे कुंतल पर अधिकार करने में सहायता प्रदान किया।
- पृथ्वीसेन ने अपने पुत्र रूद्रसेन द्वितीय का विवाह गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावतीगुप्त से कर दिया।
- इस वैवाहिक संबंध से दोनों राजवंशों को लाभ हुआ, परंतु अधिक लाभ गुप्तों को हुआ।
रूद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.)
- पृथ्वीसेन का उत्तराधिकारी रूद्रसेन द्वितीय हुआ। वह चंद्रगुप्त द्वितीय का दामाद था।
- वह एक शक्तिशाली शासक था। उसने अपनी पत्नी के प्रभाव में आकर बौद्धधर्म त्याग दिया और वैष्णव धर्म को अपना लिया।
- दुर्भाग्यवश शासक बनने के कुछ समय बाद ही रूद्रसेन की अकाल मृत्यु हो गई।
- रूद्रसेन की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी प्रभावती गुप्त अपने बड़े नाबालिग पुत्र दिवाकरसेन की संरक्षिका बनी। उसके संरक्षिका के रूप में प्रभावती गुप्त ने 13 वर्षों तक राज्य किया।
- प्रभावती गुप्त ने चंद्रगुप्त द्वितीय को गुजरात व काठियावाड़ पर विजय प्राप्त करने में सहायता पहुंचाई।
- 403 ई. में दिवाकरसेन की भी मृत्यु हो गई।
- अब प्रभावतीगुप्त ने अपने दूसरे पुत्र दामोदरसेन की संरक्षिका के रूप में राज्य करना आरंभ किया।
प्रवरसेन द्वितीय (410-440 ई).
- वाकाटक वंश की मूल शाखा का अंतिम शक्तिशाली शासक प्रवरसेन द्वितीय था, उसका आरंभिक नाम दामोदरसेन था।
- वह एक कुशल प्रशासक था; लेकिन उसकी अभिरूचि युद्ध से अधिक शांति के कार्यों, विशेषतया साहित्य और कला के विकास में थी।
- उसने सेतुबंध नामक काव्य की रचना की थी। उसे नयी राजधानी प्रवरपुर बनाने का श्रेय भी दिया जाता है।
- उसने अपने पुत्र नरेंद्र का विवाह कुंतल नरेश की पुत्री अजित भट्टारिका से किया।
- इस वैवाहिक संबंध से वाकाटकों की स्थिति मजबूत हुई।
- प्रवरसेन वैष्णव धर्म को मानने वाला था।
नरेंद्र सेन (440-460 ई.)
- प्रवरसेन के पश्चात वाकाटकों की शक्ति का क्रमशः पतन आरंभ हुआ। प्रवरसेन का उत्तराधिकारी नरेंद्रसेन हुआ। उसके शासनकाल में नल राजा भवदत्तवर्मन ने वाकाटकों पर आक्रमण किया।
- आरंभिक चरण में वाकाटकों को पराजित होना पड़ा; परंतु बाद में नरेंद्रसेन ने नलो के कुछ प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर ली।
- नरेंद्रसेन ने मालवा, मेकल और कोसल पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। उसने बेसिम शाखा के वाकाटकों से भी सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा।
पृथ्वीसेन-II (460-480 ई.)
- वाकाटक वंश का अंतिम ज्ञात शासक पृथ्वीसेन-II था।
- उसे नलों और त्रैकुटकों के साथ संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष ने वाकाटकों की शक्ति क्षीण कर दी।
- बेसिम वंश के शासकों ने 5वीं शताब्दी के अंत तक वाकाटकों के मूल शाखा पर अधिकार कर लिया।
वाकाटकों की बेसिम शाखा
- बेसिम शाखा का संस्थापक प्रवरसेन का पुत्र सर्वसेन था।
- उसे बरार और उत्तरी हैदराबाद का प्रशासक नियुक्त किया गया था।
- रूद्रसेन प्रथम के समय में वह स्वतंत्र शासक बन बैठा।
- सर्वसेन का उत्तराधिकारी विंध्यसेन (विंध्यशक्ति) हुआ।
- उसने पृथ्वीसेन प्रथम की सहायता से महाराष्ट्र पर विजय प्राप्त की।
- प्रवरसेन और देवसेन इस वंश के अन्य शासक थे।
- बेसिम शाखा का सबसे महत्वपूर्ण शासक हरिषेण (480-515 ई.) था। अजंता से प्राप्त उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सेन गुजरात, मालवा, दक्षिणी कोशल और कुंतल प्रदेशों पर अधिकार किया।
- हरिषेण के बाद वाकाटकों का इतिहास स्पष्ट नहीं है।
- 515-550 ई. के मध्य सोमवंशियों ने छत्तीसगढ़, कदम्बों ने दक्षिण महाराष्ट्र कलचुरियों ने उत्तरी महाराष्ट्र मालवा और मध्य प्रदेश के अन्य भागों पर यशोधर्मन ने अधिकार कर वाकाटकों की सत्ता समाप्त कर दी।

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